बुन्देलखण्ड
में कजलियां का त्यौहार बहुत जोर-शोर से मनाया जाता है क्योंकि कजलियां मूलत: बुंदेलखंड
की एक परंपरा है जो कि पर्व के रूप में हमारे समाज में सम्मलित हो गई। इस क्षेत्र में
यह लोकपरम्परा व बिश्वास का पर्व माना जाता है। हरे कोमल बिरवों को आदर और सम्मान के
साथ भेंट करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। पहले कभी यह पर्व बड़े् ही उत्साह
के साथ मनाया जाता था, परन्तु
आधुनिकता की दौड़ में इस पर्व की रौनक फीकी पड़ती जा रही है। हालांकि कुछ ग्रामीण व शहरी
इलाकों में इस परम्परा को अभी भी लोग जीवित
किए हुए हैं।
यह
त्यौहार विशेषरूप से खेती-किसानी से जुडा हुआ त्यौहार है। इस त्यौहार में विशेष रूप
से घर-मोहल्ले की औरतें हिस्सा लेती हैं। सावन के महीना की नौमी तिथि से इसका अनुष्ठान
शुरू हो जाता है। नाग पंचमी के दूसरे दिन अलग अलग खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों
में भरकर उसमें गेहूं के बीज बो दिए जाते थे। औरतें मट्टी कौ गा-बजा कै पूजन करतीं
हैं और उसके बाद में 'नाउन'
( नाइ की पत्नी ) से छोयले ( छुले ) के दोना मँगवा कै उसमें जा मट्टी
रख देतीं हैं।
एक
सप्ताह बाद एकादशी की शाम को बीजों से तैयार कजलियों की पूजा की जाती है। फिर दूसरे
दिन द्वादशी को सुबह उन्हे किसी जलाशय आदि के पास ले जाकर उन्हे मिट्टी से खुटक लिया
जाता है, और सभी दोने को तलबा में विसर्जन कर देती
हैं। खोंटीं हुई कजलियाँ सबको आदमियन-औरतों-बच्चों को बाँटी जातीं हैं और वे सब आदर
से सर-माथै पै लगाती है। गेहूं की कोमल कजलियों को लड़कियों द्वारा परिवार के सदस्यों
के कानों के ऊपर खोसकर टीका लगाती हैं।
उसके
बाद मुंह मीठा कराने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। कान में कजलिया लगवाने वाले
पुरुष वर्ग को कजलिया लगाने वाली कन्याओं की सगुन के तौर पर रुपए पैसे भी दिए जाते
हैं। यह पर्व ज्यादातर भाई बहनों के बीच ज्यादा लोकप्रिय है। बहन अपने भाई की लम्बी
उम्र के साथ साथ भाई से अपेक्षा करती हैं कि वह उनकी रक्षा करते रहें। रक्षा बंधन से
मिलता जुलता यह पर्व गांवों की लड़कियों को महीनों से इंतजार हुआ करता था लेकिन अब यदा
कदा की इस परम्परा को निभाते लोग दिखाई पड़ते हैं।
इस पर्व में शुभकामनाये के रूप में लोग एक दुसरे को 'हमेशा कजलिया जैसे हरा भरा प्रसन्न और खुश रहने' की कामना करते है।
साहित्यकार
वेद प्रकाश मिश्रा के अनुसार इस परम्परा के पीछे मृदा एवं बीज परीक्षण इस लोक पर्व
को मनाए जाने के पीछे एक शोध प्रवृत्ति भी देखी जाती है। गेहूं की फसल बोने से पहले
मनाए जाने वाले इस पर्व पर मिट्टी की उर्वरक शक्ति तथा बीजों की अंकुरण क्षमता परखी
जाती थी। अलग-अलग खेतों से लाई गई मिट्टी में घर में रखे गेहूं के बीज को बोया जाता
है।
इससे
जब कजलिया तैयार होती है तो किसानों की इस बात का अंदाजा लग जाता है कि खेत की मिट्टी
और गेहूं का बीज कैसा है। यदि कजलिया मानक के अनरुप पाई गई तो किसान आश्वस्त हो जाते
हैं कि बीज और खेत की मिट्टी गेहूं की फसल के लिए उपयुक्त है। कृषि उत्पादन सम्बंधी
यह पद्धति प्रायोगिक एवं व्यवहारिक दोनों ही मानी जाती थी। आज के वैज्ञानिक युग में
भी कुछ इलाकों में यह पर्व अभी भी जीवित है।
कजलियों के त्यौहार के पीछे एक पुरानी कथा
महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस
से परिपूर्ण गाथाएँ बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है। महोबे के राजा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली
के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दि थी। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने
अपनी सखी-सहेलियन के साथ गई थी। राजकुमारी कौ पृथ्वीराज हाथ न लगाने पावे इसके लिए
राज्य के बीर-बाँकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराकरम
दिखलाया था। इन दो बीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई से जा पहुँचे।
कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई बीरगति
को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा
रंजीत शहीद हुआ। बाद में आल्हा, ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा,
जैसें बीर ने पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया।
महोबे की जीत के बाद से राजकुमारी चन्द्रवलि ने और सभी लोगों ने अपनी -अपनी कजिलयन
को खोतेने लगी। इस घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में कजलियां का त्यौहार
विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है।
1 Comments
भाई आपने पुरानी यादैं ताजा कर दीं. संस्कृति में नहला दिया.
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