मित्रो आप सब ने फिल्म आनंद का वो गीत तो सुना ही होगा कि ‘‘जिन्दगी...कैसी है ये पहेली....हाय.......कभी ये हॅसाऐ कभी ये
रूलाऐ‘‘। रात के दो बजने को
है अचानक निद्रा टूट जाती है, मन कुछ परेशान सा है समझ मे नही आ रहा है कि आखिर एैसा क्यूॅ.....?
बिस्तर छोड़ा और बाहर आ गया तो देखा कि,
धरती चॉदनी रात में दूधिया सफेदी की चादर ओढ़े हुऐ है। मुहल्ले
के चारो तरफ सन्नाटा पसरा हुआ है। दूर से कही ‘गोरखा‘ के सीटियों की आवाज हर आधा मिनट मे सुनाई दे रही थी। कही न कही
मन की बेचैनी को सीटियो की आवाज सुकून दे रही थी कि चलो कोई तो इस वक्त जाग रहा है,
वो भी इस शहर के लिये अपनी डिउटी दे रहा है।
मन कहता है कि हर कोई अपना है पर दिमाग कहता है कि सब
माया है रिश्ते - नाते, मान-सम्मान, अपना-पराया, अच्छा-बुरा, जमीन-ज्यायजाद, धन-दौलत सब त्याग दो, सामने शिव
जी का मंदिर दिख रहा है, अंदर बल्ब की रोशनी मे शिवलिंग रोशन हो रहा है, लोग कहते है कि रात हो गई भगवान सो जाते है, कहे भी क्यो ना आखिर मानव जो ठहरा, वो भी हर किसी को अपने ही नजरिये से देखता है। जब मानव सो जाता
है तो मंदिर मे बैठे भगवान भी क्यो न सो जाऐ। पर उस वक्त एैसा नहीं था, मंदिर के झारोखो से शिव हमें दर्शन दे रहे है। मन को सुकून मिल
रहा था। वे मेरे शिव है, हम सबके शिव है। शिव बड़े भोले है, नाथों के नाथ भोलेनाथ है। भोलेनाथ से निराला कोई और नही, वे कह रहे है जिन्दगी की पहेली को सुलझााने के लिये ही तो हमने
‘हलाहल‘ को पिया
है। ये हलाहल कोई और नही बल्कि वही जीवन से जुड़ी हुई गंदगी ही है जिससे इंसान दूर भागने
की कोशिस करता है और हार जाता है। ये जिन्दगी हारने के लिये नही होती हैैं। इसे जीतने
के लिये इसके असहनीय मार्ग को विष समझ कर पी जाना ही ‘विषपान’ है। मगर
हारो मत, जीतोगे जरूर ये तो तय है।
1 Comments
sundar aalekh..
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