19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी पहली ऐसी भारतीय प्रधानमंत्री बनीं जिसे न्यायालय में गवाही
देने आना पड़ा हो. यह मामला उनके खिलाफ दर्ज की गई चुनाव याचिका की सुनवाई का था.
मार्च 1975 का यही वह समय भी था जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में
दिल्ली की सड़कों पर लगभग साढ़े सात लाख लोगों की भीड़ इंदिरा गांधी के खिलाफ नारे
लगा रही थी. 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' और 'जनता का दिल बोल रहा है, इंदिरा का आसन डोल रहा है' जैसे नारों से सारा देश गूंज उठा था. इसके कुछ समय बाद ही 12 जून 1975 का वह ऐतिहासिक दिन जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 15 नंबर कमरे में हुए एक फैसले ने इंदिरा गांधी के चुनाव को
गलत बताते हुए उसे रद्द कर दिया. इसी महीने 25 जून को देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया. इसके बाद शुरू
हुआ संविधान में ऐसे संशोधनों का दौर जिन्होंने भारतीय गणतंत्र की आत्मा को ही
बदलकर रख दिया.
जब
न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार छीना गया
आपातकाल में
हुए संशोधनों में सबसे पहला था भारतीय संविधान का 38वां संशोधन. 22 जुलाई 1975 को पास हुए इस संशोधन के द्वारा न्यायपालिका से आपातकाल की
न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया गया. इसके लगभग दो महीने बाद ही संविधान
का 39वां संशोधन लाया गया.
जब
न्यायपालिका से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त के चुनाव की जांच करने का अधिकार छीना
गया
यह संविधान
संशोधन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद को बनाए रखने के लिए किया गया था.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर चुका था. लेकिन इस संशोधन
ने न्यायपालिका से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का
अधिकार ही छीन लिया. इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ
संसद द्वारा गठित की गई समिति ही कर सकती थी.
संविधान बनाम 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा'
आपातकाल को
समय की जरूरत बताते हुए इंदिरा गांधी ने उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन
किये. 40वें और 41वें संशोधन के जरिये संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के
बाद 42वां संशोधन पास किया गया. इसी संशोधन के कारण संविधान को 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा' कहा जाने लगा था. इसके जरिये भारतीय संविधान की प्रस्तावना
तक में बदलाव कर दिए गए थे.
जब मिली
विधायिका को अपार शक्तियां और न्यायपालिका हो गया बौना
42वें संशोधन के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक था - मौलिक अधिकारों की
तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना. इस प्रावधान के कारण
किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था. इसके साथ ही
इस संशोधन ने न्यायपालिका को पूरी तरह से बौना कर दिया था. वहीँ विधायिका को अपार
शक्तियां दे दी गई थी. अब केंद्र सरकार को यह भी शक्ति थी कि वह किसी भी राज्य में
कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी. साथ ही
राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया.
42वें संशोधन के बाद विधायिका द्वारा किए गए 'संविधान-संशोधनों' को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती
थी. साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा
सकती थी. किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ
राष्ट्रपति को दे दिया गया और संसद का कार्यकाल भी पांच वर्ष से बढाकर छह वर्ष कर
दिया गया.
1 Comments
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'बेबाकी और फकीरी की पहचान बाबा नागार्जुन - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDelete