मूंगफली खाकर छिलके लौटाने पहुंचे साहित्य(हत्या)कार


परिश्रम से अर्जित की हुई चीजों का सम्मान होता है, खैरात में मिली चीजों का बस नाम होता है | साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटने वाले साहित्यकार स्वयं को देश से ऊँचा सम्मानित शख्स समझने लगे है इनमे से सभी सठियाई उम्र में प्रवेश कर चुके है , और साठ के होते ही सरकार अपने कर्मचारियों को भी रिटायर कर देती है | पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह लौटाना ठीक वैसा ही है जैसे मूंगफली खाकर छिलके लौटाना |

पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह लौटाने वाले किसी चाटुकार साहित्यकार ने स्पष्ट नहीं बताया के पुरस्कार के साथ दी गयी धनराशि भी 10.5% ब्याज के साथ सरकार को लौटाई या नहीं ? जिन लोगों को पुरस्कार लौटाने की जल्दी है, अपना पेन्शन भी लौटा सकते हैं | आखिर पेन्शन का फंड भी तो सरकार ही जारी करती है | दो सौ रुपए का शील्ड लौटाने वाले "वैचारिक धूर्तकारों" को लगता है कि पेन्शन अब भी उन्हें कांग्रेस सरकार के खाते से मिलता है | इसलिए नहीं लौटा रहे |

बहरहाल राष्ट्रहित में इस पावन संस्था में वर्षों से जमा "गंदा सेक्युलर बौद्धिक कचरा" साफ हो रहा हैं वो भी युद्ध स्तर पर | पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह वापसी को शुद्धिकरण के प्रभाव के रूप में ही देखना चाहिए | घर में सफाई के दौरान भी चूहे, कॉकरोच, छिपकलियां और कीड़े-मकोड़ो में भगदड़ आम बात है |

साहित्य अकादमी पुरुस्कार लौटाने वाले तथाकथित 'साहित्य(हत्या)कारों' को आइना दिखाती कवि गौरव चौहान की एक रचना, साभार प्रस्तुत है |

हैं साहित्य मनीषी या फिर अपने हित के आदी हैं।
राजघरानो के चमचे हैं, वैचारिक उन्मादी हैं।।
दिल्ली दानव सी लगती है, जन्नत लगे कराची है।
जिनकी कलम तवायफ़ बनकर दरबारों में नाची है।।
डेढ़ साल में जिनको लगने लगा देश दंगाई है।
पहली बार देश के अंदर नफरत दी दिखलायी है।।
पहली बार दिखी हैं लाशें पहली बार बवाल हुए।
पहली बार मरा है मोमिन पहली बार सवाल हुए।।
नेहरू से नरसिम्हा तक भारत में शांति अनूठी थी ।
पहली बार खुली हैं आँखे, अब तक शायद फूटी थीं।।
एक नयनतारा है जिसके नैना आज उदास हुए।
जिसके मामा लाल जवाहर, जिसके रुतबे ख़ास हुए।।
पच्चासी में पुरस्कार मिलते ही अम्बर झूल गयी।
रकम दबा सरकारी, चौरासी के दंगे भूल गयी।।
भुल्लर बड़े भुलक्कड़ निकले, व्यस्त रहे रंगरलियों में।
मरते पंडित नज़र न आये काश्मीर की गलियों में।।
अब अशोक जी शोक करे हैं,बिसहाडा के पंगो पर।
आँखे इनकी नही खुली थी भागलपुर के दंगो पर।।
आज दादरी की घटना पर सब के सब ही रोये हैं।
जली गोधरा ट्रेन मगर तब चादर ताने सोये हैं।।
छाती सारे पीट रहे हैं अखलाकों की चोटों पर।
कायर बनकर मौन रहे जो दाऊद के विस्फोटों पर।।
ना तो कवि,ना कथाकार, ना कोई शायर लगते हैं।
मुझको ये आनंद भवन के नौकर चाकर लगते हैं।।
दिनकर,प्रेमचंद,भूषण की जो चरणों की धूल नही।
इनको कह दूं कलमकार, कर सकता ऐसी भूल नही।।
चाटुकार,मौका परस्त हैं, कलम गहे खलनायक हैं।
सरस्वती के पुत्र नही हैं, साहित्यिक नालायक हैं ।।
रचनाकार :- कवि गौरव चौहान 

मेरी इस प्रस्तुति से अगर किसी भावनाए आहत हुई हो तो कोई बात नहीं, क्योंकि देश के सम्मान को चोट पहुचाने वाला चाहे कितनी भी बड़ी हस्ती हो वो मुझे पसंद नहीं, जो लोग देश के पुरूस्कार को अपने घर की खेती समझ कर उसे अपमानित करते है, उनका बहिष्कार होना ही चाहिए । मेरा विरोध पुरूस्कार को अपमानित करने वालों से है ।    

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3 Comments

  1. आभार आपका.....

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  2. Anonymous10/19/2015

    वाह - करारा व्यंग, सार्थक प्रस्तुति

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  3. राकेश जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद

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